क्या शहर में भी कोई चेतना होती है ?
किसे कहोगे शहर ?
सड़कें, इमारतें, वाहनों के कोलाहल को,
या फिर लोगों के मेले को-
यंत्रवत,अपने-अपने कामों में लगे हुए लोग ।
क्या कोई जगह भी जीवंत हो सकती है ?
कुछ अलग है अपने शहर में लौट के आना,
निकट,सजीव, जीवन से भरपूर ।
जैसे पुराना दोस्त यूँ ही कहीं मिल जाए,
जैसे गुज़रा समय, बिसरी बातें, बीते पल फ़िर सामने आ जाएं,
निजी, भावपूर्ण, नॉस्टैल्जिक !
हाँ शहर में भी चेतना हो सकती है –
साँस लेती, धड़कती हुई चेतना ।।
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