वाणी विष बन जाती अक्सर, सुनी सुनाई बात बेकार आँखें भी खेल करे हैं कभी इन सब में भरम के हैं आसार, तू अंतर मन में झांक ज़रा तेरे पास हैं दो आधार मौन है रक्षा कवच, और स्मित है स्वागत द्वार ।।
Author: Ajay Bhadoo
बरसों बरस – किसी जुस्तजू की तलाश में किसी आरजू की आस में किसी बदली की प्यास में किसी ख्वाब में या सराब में जिंदगी गुजार देने के बाद भी कितना आसान है – थोड़ा और इंतजार । पर कितना मुश्किल है ये मानना कि सब बेमानी था – मंज़िल भी, मुसाफ़िर भी, मसाफ़त भी ।।
जब मेरी पत्नी सो रही हो, और जब बिटिया और उसकी आया सो रही हो । और जब सूर्य एक धुंध में चमकता सफेद गोला हो – चमकते पेड़ों के ऊपर । जब मैं अपनी स्टडी में, नाच रहा हूं – नग्न, बदसूरत आईने के सामने, सर के उपर अपनी शर्ट घुमाते हुए हौले से गाते हुए – मैं कितना तन्हा हूं, मैं पैदाइशी तन्हा हूं मैं तन्हा ही अच्छा हूं जब मैं अपनी परछाई देख कर गुण गान कर …
जीवन बस एक कहानी, हम लिखते लम्हों की ज़ुबानी । चाहे वो वक़्त गुज़िश्ता हो , या चाहे आने वाला कल । भरपूर मिले वो लम्हे भी और मिल न सके वैसे भी पल। यादों, बातों, नातों के पल , कुछ चाह के पल, कुछ मोह के पल आशाओं और उम्मीदों के, नाकामी और निराशा के, कुछ लहरों जैसे हल्के पल, मस्ती के पल, फ़ुर्सत के पल । कुछ बोझिल मेरे ज़ेहन पर हैं, इक ठसक के पल इक कसक …
क्या शहर में भी कोई चेतना होती है ? किसे कहोगे शहर ? सड़कें, इमारतें, वाहनों के कोलाहल को, या फिर लोगों के मेले को- यंत्रवत,अपने-अपने कामों में लगे हुए लोग । क्या कोई जगह भी जीवंत हो सकती है ? कुछ अलग है अपने शहर में लौट के आना, निकट,सजीव, जीवन से भरपूर । जैसे पुराना दोस्त यूँ ही कहीं मिल जाए, जैसे गुज़रा समय, बिसरी बातें, बीते पल फ़िर सामने आ जाएं, निजी, भावपूर्ण, नॉस्टैल्जिक ! हाँ शहर …
रंग बदलते, रूप बदलते, भाव बदलते हरपल, जीवन के ही किस्से कहते आसमान के बादल । कभी ये नभ में उड़ते जाऐं बनके ऊंची पतंग, जैसे मन में जाग रही हो कोई नई उमंग । कभी देख सकते हो इनमे, शेर भालू या बंदर, कभी लगे ये भूत के साये प्रगटें अंदर के डर, कोई बादल श्वेत जोश में भंगड़ा करता है, कोई बोझिल श्याम रंग में सैड सांग गाता है । इनमे तुम जीवन के नए सपने बुन सकते …
ब्रह्मा विष्णु महेश मन की ये तीन शक्ति निज के ये तीन रूप अंतर के ये सर्वेश । भीतर छुपे ब्रह्मा से ही प्रेरित हुए नवविचार,नवसर्जन, नवयुग । फिर बीज को मैने विष्णु बनकर बरगद की तरह पनपाया, फैलाया । अब पत्तों को झड़ना है, जीवन धूप को ढलना है, मुझको शंकर बनना है । ब्रह्मा विष्णु महेश मन की ये तीन शक्ति निज के ये तीन रूप अंतर के ये सर्वेश ।।
कितने रूप बदलती है ये रात, कभी लम्बे सुनसान रस्तों की मौन रात्रि, तो कभी यादों और बातों का रतजगा लगा हो जैसे । कभी इतने अंधेरे के खुद को भी पहचान न सकूँ, तो कभी ख़यालों के उजाले की जिनमे हर सच्चाई देख सकूँ । कभी चीजें इतनी अलग दिखें जैसे दिल में छिपे अनजाने डर, तो कभी सितारे राह दिखाते हैं के आगे बढ़ और मंजिल चुन । कभी ये एहसास की ज़िंदगी भी इस रात की तरह …
कभी कभी सोचता हूँ, कि क्या है सबसे पुरातन ? गाँव, शहर, बस्ती क्या प्राचीन हैं ? पिता, बन्धु-बान्धव, घर-परिवार, या फ़िर मित्रता ? किसको कहें हम पुराना ? कहाँ हैं हमारी जड़ें ? क्या है प्राकृतिक ? जवाब मिलता है दुनिया के सबसे पुराने रिश्ते में, माँ और बच्चा – सच है, संसार में शिशु से पुरातन कुछ भी नही। युग बदले, लोग बदले, सभ्यता बदली, पर बालक है वहीं का वहीं, जैसे पहले दिन था वो कहीं। सहज, …
गाँवों की हलचल रुक सी गई, सो गया शहर का कोलाहल जन-जीवन ऐसे सुस्त हुआ दैनिकता जैसे मूर्च्छा पर । सब कहते है ये महा -समर, धरती पर छाया गहन तिमिर चिंता में सब ये सोच रहे कैसे होगा ये समय बसर पर देखो इस आँधी में भी , कुछ लोग लगे कर्त्तव्य रत, सोचो इनके साहस को तुम पा जाओगे सहज संबल ये सच है मानवता सहमी जग की रौनक जैसे है छिनी पर जुड़े हुए हैं सब फिर …
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