गाँवों की हलचल रुक सी गई,
सो गया शहर का कोलाहल
जन-जीवन ऐसे सुस्त हुआ
दैनिकता जैसे मूर्च्छा पर ।
सब कहते है ये महा -समर,
धरती पर छाया गहन तिमिर
चिंता में सब ये सोच रहे
कैसे होगा ये समय बसर
पर देखो इस आँधी में भी ,
कुछ लोग लगे कर्त्तव्य रत,
सोचो इनके साहस को तुम
पा जाओगे सहज संबल
ये सच है मानवता सहमी
जग की रौनक जैसे है छिनी
पर जुड़े हुए हैं सब फिर भी
हैं सभी साथ एकल न कोई
तम चाहे जितना गहरा हो,
पथ चाहे घोर घनेरा हो
ये यात्रा नही होती लम्बी
किरणों की मंजिल दूर नही
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का
प्रयाण सदा ही शाश्वत है
हारा है कभी न अंधेरे से
वह ज्योति पुंज जो भीतर है
आओ मिलकर संकल्प करें
जब नया सवेरा आएगा
तब मनुष्य और प्रकृति को
हम नई नज़र से देखेंगें
हम समझ, समाज, सभ्यता को
कुछ नए तरह से परखेंगें ।।
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